राजस्थान की क्षेत्रीय बोलिया

 

राजस्थान की क्षेत्रीय बोलियां ( Rajasthan Regional bids )

डॉ एल.पी.टेसीटोरी का वर्गीकरण

इटली के निवासी टेसीटोरी की कार्यस्थली बीकानेर रही । उनकी मृत्यु (1919 ई. ) भी बीकानेर में ही हुई । बीकानेर महाराजा गंगासिंह ने उन्हें ‘राजस्थान के चारण साहित्य’ के सर्वेक्षण एंव संग्रह का कार्य सौंपा था । डॉ. टेसीटोरी ने चरणों और ऐतिहासिक हस्तलिखित ग्रन्थों की एक विवरणात्मक सूची तैयार की । उन्होंने अपना कार्य पूरा कर राजस्थानी साहित्य पर दो ग्रंथ लिखे ।

  1. राजस्थानी चारण साहित्य एंव ऐतिहासिक सर्वे ।
  2. पश्चमी राजस्थान का व्याकरण ।

टेसीटोरी की प्रसिद्ध पुस्तक “ए डिस्क्रिप्टिव केटलॉग ऑफ द बार्डिक एन्ड हिस्टोरिकल क्रोनिकल्स ‘ है ।

डॉ एल.पी.टेसीटोरी के अनुसार राजस्थान ओर मालवा की बोलियों को दो भागों में बांटा जा सकता है—

  1. पश्चिमी राजस्थान की प्रतिनिधि बोलियां-: मारवाड़ी मेवाड़ी बागड़ी शेखावाटी
  2. पूर्वी राजस्थान की प्रतिनिधि बोलियां-: ढूंढाड़ी हाडोती मेवाती अहीरवाटी

1. पश्चिमी राजस्थान की मुख्य बोलियां

मारवाड़ी:-

  • कुवलयमाला में जिस भाषा को ‘मरुभाषा’ कहा गया है,वह मारवाड़ी है । इसका प्राचीन नाम मरुभाषा है जो पश्चमी राजस्थान की प्रधान बोली है । मारवाड़ी का आरम्भ काल 8 वी सदी से माना जाता है ।
  • इसका विस्तार जोधपुर, बीकानेर ,जैसलमेर, पाली ,नागौर, जालौर ,सिरोही जिलों तक है । विशुद्ध मारवाड़ी केवल जोधपुर एंव आसपास के क्षेत्र में ही बोली जाती है ।
  • मारवाड़ी के साहित्यिक रूप को डिंगल कहा जाता है ।
  • इसकी उत्पत्ति गुर्जर अपभ्रंश से हुई है तथा जैन साहित्य एंव मीरा के अधिकांश पद इसी भाषा मे लिखे गए है ।राजिया रा सोरठा,वेलि किसन रुक्मणी री ,ढोला-मरवण, मूमल आदि लोकप्रिय काव्य मारवाड़ी भाषा मे ही रचित है ।
  • मारवाड़ी की बोलियां एंव उपबोलियां:-मेवाड़ी ,बागड़ी, शेखावाटी, बीकानेरी , खेराड़ी ,नागौरी, देवड़ा वाटी गोड़वाड़ी आदि मारवाड़ी भाषा की प्रमुख बोलियां एंव उपबोलियां हैं ।

मेवाड़ी

उदयपुर एवं उसके आसपास के क्षेत्र को मेवाड़ कहा जाता है, इसलिए यहां की बोली मेवाड़ी कहलाती है । यह मारवाड़ी के बाद राजस्थान की महत्वपूर्ण बोली है । मेवाड़ी बोली के विकसित और शिष्ट रूप के दर्शन हमें 12वीं 13 वीं शताब्दी में ही मिलने लगते हैं ।मेवाड़ी का शुद्ध रूप मेवाड़ के गांव में ही देखने को मिलता है ।

मेवाड़ी में लोक साहित्य का विपुल भंडार है महाराणा कुंभा द्वारा रचित कुछ नाटक इसी भाषा में है । धावड़ी उदयपुर की एक बोली है।

बागड़ी:-

डूंगरपुर बांसवाड़ा के क्षेत्रों का प्राचीन नाम बागड़ था । अतः वहां की भाषा बागड़ी का कहलायी, जिस पर गुजराती का प्रभाव अधिक है डॉक्टर ग्रियर्सन ने इसे “भीली” भी कहते हैं ।यह भाषा मेवाड़ के दक्षिणी भाग, दक्षिणी अरावली प्रदेश तथा मालवा की पहाड़ियों तक के क्षेत्र में बोली जाती है ।भीली बोली ईसकी सहायक बोली है ।

शेखावाटी:-

मारवाड़ी की उपबोली शेखावाटी राज्य के शेखावाटी क्षेत्र ( सीकर ,झुंझुनू तथा चूरू जिले के क्षेत्र) में प्रयुक्त की जाने वाली बोली है जिस पर मारवाड़ी, ढूंढाड़ी का पर्याप्त प्रभाव दृष्टिगोचर होता है।

गौड़ वाड़ी

जालौर जिले की आहोर तहसील के पूर्वी भाग से प्रारंभ होकर पाली में बोली जाने वाली यह मारवाड़ी की उपबोली है । बीसलदेव रासो इस बोली की मुख्य रचना है।

देवड़ा वाटी

देवड़ा वाटी भी मारवाड़ी की उपबोली है जो सिरोही क्षेत्र में बोली जाती है इसका दूसरा नाम सिरोही है।

ढाटी

मारवाड़ी की उपबोली है जो बाड़मेर में बोली जाती है ।

2. पूर्वी राजस्थानी की मुख्य बोलियां

ढूंढाड़ी

उत्तरी जयपुर को छोड़कर शेष जयपुर, किशनगढ़ ,टोंक ,लावा तथा अजमेर मेरवाड़ा की पूर्वी अंचलों में प्रयुक्त की जाने वाली बोली ढूंढाड़ी कहलाती है। इस पर गुजराती ,मारवाड़ी एवं ब्रज भाषा का प्रभाव समान रूप से मिलता है ढूंढाड़ी में गद्य एवं पद्य दोनों में प्रचुर साहित्य रचा गया । संत दादू एवं उनके शिष्यों ने इसी भाषा में रचनाएं की । इसे जयपुरी या झाड़शाही भी कहते है । इस बोली का प्राचीनतम उल्लेख 18 वीं सदी में “आठ देश गुजरी” पुस्तक में हुआ है।

तोरावाटी

झुंझुनू जिले का दक्षिण भाग, सीकर जिले का पूर्वी एवं दक्षिणी पूर्वी भाग तथा जयपुर जिले के कुछ उत्तरी भाग को “तोरावाटी” कहा जाता था अतः यहां की बोली तोरावाटी कहलाई । काठेड़ी बोली जयपुर राज्य के दक्षिणी भाग में प्रचलित है जबकि चौरासी जयपुर जिले के दक्षिण पश्चिम, टोंक जिले के पश्चिम भाग में प्रचलित है । नागरचोल सवाई माधोपुर जिले के पश्चिमी भाग, टोंक जिले के दक्षिण-पूर्वी भाग में बोली जाती है । पचवारी लालसोट से सवाई माधोपुर के मध्य बोली जाती है । जयपुर जिले के पूर्वी भाग में राजा वाटी बोली प्रचलित है । जगरोति करौली की प्रमुख बोली है ।

हाड़ोती 

हाड़ा राजपूतों द्वारा शासित होने के कारण कोटा, बूंदी ,बारां एंव झालावाड़ का क्षेत्र हाड़ोती कहलाई और यहां की बोली ” हाडोती” कहलाई ।यह ढूंढाड़ी की उपबोली है ।हाडोती का भाषा के अर्थ में प्रयोग ,सर्वप्रथम केलॉग के हिंदी ग्रामर में सन 1875 ई. में किया गया । वर्तनी की दृष्टि से हाड़ोती राजस्थान की सभी बोलीयों में सबसे कठिन समझी जाती है । कवि सूर्यमल्ल मिश्रण की रचनाएं इसी बोली में है । इसका विस्तार ग्वालियर तक है ।हूणो एंव गुर्जरों की भाषा का प्रभाव इस पर है ।

मेवाती

अलवर एवं भरतपर जिलों का क्षेत्र मेव जाति की बहुलता के कारण मेवात के नाम से जाना जाता है । अतः यहां की बोली मेवाती कहलाती है । चरणदास की शिष्याएं दयाबाई ,सहजोबाई की रचनाएं इसी बोली में है।

अहीर वाटी

अहीर जाती के क्षेत्र की बोली होने के कारण इसे ‘हीरवाटी’ या “हीरवाल”भी कहा जाता है ।इस बोली के क्षेत्र को “राठ”कहा जाता है इसलिए इसे राठी भी कहते हैं ।यह मुख्यत: अलवर की बहरोड व मुंडावर तहसील भाग में बोली जाती है ।

मालवी

यह मालवा क्षेत्र में प्रयुक्त होने वाली बोली है । यह झालावाड़ , प्रतापगढ़ एंव कोटा के मालवा क्षेत्र में प्रयुक्त की जाती है। इस बोली में मारवाड़ी एवं ढूंढाड़ी दोनों की कुछ विशेषताएं पाई जाती है । मालवी एक कर्णप्रिय कोमल बोली है।इस बोली में चंद्र सखी व नटनागर की रचनाएं प्रमुख है।

रांगड़ी

मालवी बोली का रागड़ी रूप कुछ कर्कश है ,जो मालवा क्षेत्र के राजपूतों की बोली है । मालवा के राजपूतों में मालवी एंव मारवाड़ी के मिश्रण से बनी बोली रांगड़ी है ।

निमाड़ी

इसे मालवी की उपबोली माना जाता है निमाड़ी को “दक्षिणी राजस्थानी”भी कहा जाता है इस पर गुजराती ,भीली एवं खानदेशी का प्रभाव है ।

खेराड़ी

(शाहपुरा )भीलवाड़ा बुंदि आदि के कुछ इलाकों में बोले जाने वाली बोली ,जो मेवाड़ी, ढूंढाड़ी एंव हाड़ोती का मिश्रण है ।


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