राजस्थानी संस्कृति

Rajasthan Culture 

( राजस्थानी संस्कृति परंपरा और विरासत )

राजस्थान की सांस्कृतिक दृष्टि से भारत के समृध्द प्रदेशो में गिना जाता है संस्कृति एक विशाल सागर है इसके अंतर्गत गांव-गांव, ढाणी- ढाणी, चौपाल, चबूतरे महल – प्रसादों एवं घर – घर जन-जन में समाई हुई है राजस्थान की संस्कृति का स्वरूप राजवाड़ा और सामंती व्यवस्था में देखा जा सकता है तथा संस्कृति में साहित्य और संगीत की अतिरिक्त कला- कोशल, शिल्प, महल, मंदिर, किले, झोपड़ियां को भी अध्ययन किया जाता है जो हमारी संस्कृति के दर्पण हैं संस्कृति के अंदर पोशाक, त्यौहार, रहन-सहन, खान-पान, तहजीब- तमीज सभी संस्कृतिक के अंतर्गत आते हैं

सांस्कृतिक दृष्टि से राजस्थान को 7 प्रमुख भागों में बांटा गया है

1. मारवाड़ ( Marwar )
2. मेवाड़ ( Mewar ) 
3 शेखावटी ( Shekhawati )
4. ढूँढाड़ ( dhundhad )
5. हाड़ौती( hadauti ) 
6. ब्रज ( Braj )
7. मेवाती ( Mewati )

1. मारवाड़ ( marwar ) –

राजस्थान के पश्चिम में स्थित प्राचीन मारवाड़ रियासत का क्षेत्र सांस्कृतिक विभाग के अंतर्गत आता है इसमें जोधपुर, नागौर, पाली, जालोर बाड़मेर आदि जिले आते हैं यह पूरा क्षेत्र थार के मरुस्थल का हिस्सा है इस क्षेत्र की भाषा मारवाड़ी है क्षेत्र में घूमर ,घुड़लो , ढ़ोल, लूर, डांडिया तथा गैर नृत्य किए जाते हैं

2. मेवाड़ ( Mewar ) –

राजस्थान के दक्षिणी तथा दक्षिणी- पूर्वी में स्थित प्राचीन मेवाड़ रियासत संस्कृति विभाग के अंतर्गत आता है इसके अंतर्गत उदयपुर, चित्तौड़ ,राजसमंद, डूंगरपुर, बांसवाड़ा , भीलवाडा एवं प्रतापगढ़ जिले को सम्मिलित किया गया है यह क्षेत्र मुख्यतः पहाड़ी क्षेत्र है यहां के लोग वीर स्वाभिमानी एवं स्वतंत्रता प्रिय हैं इस क्षेत्र में मेवाड़ी भाषा बोली जाती है लगभग 1400 वर्षों तक गुहिल वंश का शासन रहा है

3. ढूंढाड़ ( dhundhad ) –

राजस्थान के मध्य एवं मध्य-पूर्व क्षेत्र यानी प्राचीन आमेर रियासत को ढूंढाड़ क्षेत्र में सम्मिलित किया गया है इसके अंतर्गत जयपुर, दौसा, टोंक जिले आते हैं यहां पर उर्वरक मैदान तथा रेत के टीले पाए जाते हैं यहां पर ढूंढाड़ी भाषा बोली जाती है तथा यहां पर गणगौर तथा बड़ी तीज का त्योहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है

4. हाडोती ( hadauti ) –

हाड़ा चौहान द्वारा शासित क्षेत्र को हाडोती कहते हैं इसके अंतर्गत कोटा, बूंदी, झालावाड़ , बांरा आदि क्षेत्र आते हैं यह पूरा क्षेत्र मुख्यतः पठारी है तथा यहां पर बड़े सरोवर, नदियां, हरे-भरे उपजाऊ मैदान भी हैं यहां पर मुख्यतः काली मिट्टी और चिकनी मिट्टी पाई जाती है इस क्षेत्र में न्हाण प्रसिद्ध लोक नाट्य है

5. शेखावटी ( Shekhawati )-

इस क्षेत्र पर कच्छावा राजकुमार शेखा के वंशजों का शासन रहा है इसलिए इसे शेखावटी क्षेत्र कहा जाता है इस क्षेत्र में मुख्यतः चुरू, सीकर, झुंझुनू जिले आते हैं इस क्षेत्र का संपूर्ण भाग रेतीले धोरे तथा मैदान स्थित है इस क्षेत्र पर कई नदियों के किनारे प्राचीन काल की सभ्यता विधमान है इसका खेतड़ी क्षेत्र तांबे के लिए जाना जाता है इस क्षेत्र में हवेलियां, भित्तिचित्र , गीदड़ नृत्य अधिक प्रसिद्ध है

6. ब्रज ( Braj )-

भरतपुर, धौलपुर एवं करौली जिले को इस भाग में सम्मिलित किया गया है क्योंकि यह जो भाग मथुरा के चौरासी कोस के घेरे में आते हैं इस क्षेत्र में ब्रज भाषाएं बोली जाती है जो काफी मधुर लोकप्रिय है नौटंकी और रासलीला आदि लोक नाटकों का आयोजन भी इसी क्षेत्र में किया जाता है

7. मेवात ( mewati )-

अलवर, भरतपुर जिलों का जो हिस्सा गुड़गांव की तरफ स्थित है उसमे मेव जाति बड़ी संख्या में निवास करती है और इन लोगों का रहन सहन वेशभूषा खानपान आदि की विशेषताएं युक्त है इसलिए इसे क्षेत्र को मेवात कहतेे हैं

राजस्थानी संस्कृति एक बेहतरीन नीरा है जो गॉव- ढाणी, चौपाल-पनघट ,महल -झोपड़ी कीले -गढ़ी ,खेत -खलियान से बहती हुई जन-जन रुपी सागर के संस्पर्श से इंद्रधनुषी छटा बिखेरती है और अपनी महक के साथ पर्व, मेले, तीज, त्योहा, नाट्य -नृत्य ,श्रंगार ,पहनावा, रीति-रिवाज ,आचार ,व्यवहार आदि में प्रतिबिंबित होती है तथा जिसे रेत के धोरों के साथ-साथ वायुमंडल 9 वसुंधरा और रोम रोम में उल्लसित और तरंगित अनुभूत किया जा सकता है

राजस्थानी संस्कृति समष्टिगत समन्वयात्मक और प्राचीन है भौगोलिक विविधता और प्राकृतिक वैभव ने इसे और आकर्षक बनाया है वस्तुत: राजस्थानी संस्कृति लोक जीवन को प्रतिनिधित्व करने वाली संस्कृति है

पधारो म्हारे देश के निमंत्रण की संवाहक राजस्थानी संस्कृति सांस्कृतिक पर्यटन की पर्याय है 33 जिलों को अपने आंचल में समेटे राजस्थान की धरती सांस्कृतिक परंपराओं का अनूठा मिश्रण प्रस्तुत करती है

राजस्थान की सांस्कृतिक परंपराएं विरासत से जुड़े स्थल प्रकृति और वन्य जीव की विविधता और देदीप्यमान इतिहास पर्यटन के खुला आमंत्रण हैं समृद्ध लोक संस्कृति के परिचायक तीज-त्यौहार उमंग के प्रतीक मेले आस्था और विश्वास के प्रतीक लोकदेवता फाल्गुन की मस्ती में नृत्य करती आकर्षक पायदान से युक्त महिलाएं पर्यटकों को चमत्कृत करने के लिए पर्याप्त है धरती धोरारी की झिलमिलाती रेत और गूंजता सुरीला लोक संगीत पर्यटक को अभिभूत करने वाला होता है

राजस्थान की संस्कृति और परंपरा की मुख्य बात यह है कि राजस्थान के जनमानस की विशालता ने जिस प्रकार सभी मान्यताओं और आस्थाओं को फलने-फूलने दिया उसी प्रकार अनेक अनुयायियों के साथ भातृभाव रखा

अजमेर की ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह ईश्वर के श्रद्धालुओं का आस्था और विश्वास का केंद्र है जिस में न धर्म की पाबंदी है न जाती कि ,ना देश की ,ना संप्रदाय की ।हिंदू मुसलमान सिख और अन्य धर्मावलंबी सभी दरगाह पर अकीदत के फूल चढ़ाते हैं मनौतियां मांगते हैं आज अजमेर सूफी मत का अंतरराष्ट्रीय प्रमुख तीर्थ है

पश्चिमी राजस्थान के बाड़मेर जिले के नाकोडा भैरव जैनियों के पूजनीय तो है ही और सनातनियों के भी माने हैं मेवाड़ के केसरियाजी जैनियों के भी मान्य हैं तो सनातनियों के भी यही स्थिति उन लोग देवताओं की भी है जिन्होंने यहां के सुदूर अंचलों में स्थित आदिवासियों जनजातियों और किसानों को सदियों से आस्था के सूत्र में बांधे रखा आज भी बाबा रामदेव उत्तर भारत के पूजनीय लोक देवताओं में प्रमुख है लोक गायकों द्वारा पाबूजी की फड़( सचित्र गुणावली) गेय बाँचने की प्रथा मध्य काल से आज भी चली आ रही है

राजस्थान के मध्यकालीन संत और उनके अनुयायियों द्वारा स्थापित मठ ,रामद्वारा, मेलो, समागमों और यात्रा के माध्यम से सांस्कृतिक और भावनात्मक एकता के यशस्वी प्रयास का सूत्रपात हुआ 

संतों की मानव कल्याण की कामना और प्रेमी भक्ति के सिद्धांतों ने यहां के समाज में भावनात्मक एकता के आयाम के नवीन पट खोले । मन मिलाने का जो प्रयास संतों द्वारा जिस सहजता से किया गया वह स्तुत्य है और यहां की संस्कृति की पहचान है

राजस्थानी लोग अपनी संस्कृति और परंपरा पर गर्व करते हैं उनका दृष्टिकोण परंपरागत है यहां साल भर में लो और पर्व-त्योहारों का तांता लगा रहता है या एक कहावत प्रचलित है सात वार नो त्योहार राजस्थान के मेले और पर्व त्यौहार रंगारंग और दर्शनीय होते हैं यह पर्व त्यौहार लोगों के जीवन उनकी खुशियां और उमंग के परिचायक हैं प्राय:इन मेलों और त्योहारों के मूल में धर्म होता है

लेकिन इनमे कई मेले और त्यौहार अपने सामाजिक और आर्थिक महत्व के परिचायक हैं मनुष्य और पशु की अंतर निर्भरता को दर्शाने वाले पशु मेले राजस्थान की पहचान है पुष्कर का कार्तिक मेला ,परबतसर और नागौर के तेजाजी का मेला जो मूलतः धार्मिक है राज्य के बड़े पशु मेले माने जाते हैं

राजस्थान में तीज को त्योहारों में पहला स्थान दिया जाता है राजस्थान में एक कहावत प्रचलित है तीज-त्यौहार बावरी ले डूबी गणगौर इसका अर्थ है कि त्योहारों के चक्र की शुरुआत श्रावण महीने में 30 से होती है और साल का अंत गणगौर से होता है गणगौर धार्मिक पर्व होने के साथ ही राजस्थान की सांस्कृतिक विरासत का प्रतीक है तीज गणगौर जैसे पर महिलाओं के महत्व को भी रेखांकित करते हैं

राजस्थान में पूरा संपदा का अटूट खजाना है राजस्थान पर प्रागैतिहासिक शैल चित्रों की छटा है तो ,कहीं हड़प्पा संस्कृति के पूर्व के प्रबल प्रमाण तो ,कहीं पर प्राचीन काल में धातु प्रयोग के साक्ष्य प्राप्त हुए हैं । कहीं गणेश्वर का ताम्र वैभव तो ,कहीं प्रस्तर प्रतिमाओं का शैल्पिक प्रतिमान, कहीं शिलालेखों के रूप मे पाषाणों पर उत्कीर्ण गौरवशाली इतिहास तो ,कहीं मृण मूर्तियां और मृदभांड से लेकर धातु प्रतिमाओं तक का शिल्प शास्त्र ,कहीं काल की गवेषणा करते प्राचीन सिक्के तो ,कहीं वास्तुकला के उत्कृष्ट प्रतीक बिखरे पड़े हैं

उपासना स्थल, भव्य प्रासाद ,अभेद्य दुर्ग और जीवन स्मारकों का संगम राजस्थान के कस्बों शहरों और उजड़ी बस्तियों में देखने को मिलता है आमेर, जयपुर, जोधपुर, बूंदी ,उदयपुर, शेखावाटी के मनोहारी विशाल प्रासाद और रण कपूर ,ओसिया, देलवाड़ा, झालरापाटन के उत्कृष्ट कलात्मक मंदिर और जैसलमेर की पटवो की शानदार हवेलियां इत्यादि ऐसे ही कुछ प्रतीक है जिन पर राजस्थानी कलाकारों के हस्ताक्षर हैं

राजस्थान की संस्कृति विरासत में राजस्थान के दुर्गों का भी महत्वपूर्ण स्थान है राजस्थान के ख्यातनाम दुर्गों में चित्तौड़ ,जैसलमेर ,रणथंबोर, गागरोन ,जालौर, सिवाना और भटनेर का दुर्ग ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत प्रसिद्ध रहे हैं इनके साथ शूरवीरों के पराक्रम और वीरांगनाओं के जोर की रोमांचक कथाएं जुड़ी है जो भारतीय इतिहास की अनमोल धरोहर है

राजस्थान के जनमानस को यह दुर्ग और उनसे जुड़े आख्यान सदा से ही प्रेरणा देते आए हैं वीरता और शौर्य के प्रतीक यह गढ़ और किले अपने अंगूठे स्थापत्य विशिष्ट संरचना अद्भुत शिल्पा और सौंदर्य के कारण दर्शनीय हैं

राजस्थान की चित्र शैलियां इसके वैभव का प्रमाण है बूंदी नाथद्वारा किशनगढ़ उदयपुर जोधपुर जयपुर आंधी राजस्थान की चित्रकला के रंगीन प्रश्न हैं जिनमें श्रृंगारिकता के साथ लौकिक जीवन की सशक्त अभिव्यक्ति हुई है राजस्थानी शैली गुजराती और जैन शैली के तत्व को अपने में समेट कर मुगल शैली में संबंधित हुई है

राजस्थान की वीर और वीरांगना ने जहां रणक्षेत्र में तलवारों का जौहर दिखाकर विश्व इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित किया है वही भक्ति और आध्यात्मिकता के क्षेत्र में भी राजस्थान पीछे नहीं रहा यहां मीरा और दादू भक्ति आंदोलन के प्रमुख संत रहे हैं

भक्ति गीतों में जहां एक और लोकतांत्रिक मूल्यों को प्रतिष्ठा मिले वही व्यक्ति स्वातंत्र्य का स्वर फूटा और लोक परक सांस्कृतिक चेतना उजागर हुई है इस चेतना का परिपाक हमें राजस्थान के मेलों और त्योहारों में दिखाई देता है यहां के मेलों और त्योहारों के आयोजन में संपूर्ण लोकजीवन पूरी सक्रियता के साथ शामिल होकर अपने भावनात्मक एकता का परिचय देता है

राजस्थान की संस्कृति परंपरा विरासत में राजस्थानी लोक नृत्य का भी विशेष महत्व रहा है लोक नृत्य राजस्थानी संस्कृति के वाहक हैं यहां के लोक नृत्य में लय ताल गीत सूर आदि का सुंदर संतुलित सामंजस्य देखने को मिलता है गैर चंग गीदड़ घूमर ढोल आदि राजस्थान के जन जीवन की संजीवनी बूटियॉ हैं इस बूटी की घूटी को लेकर राजस्थान के जनजीवन और लोकमानस नीबू का नंगा रहते हुए भी मस्ती और परिश्रम से जीना सीखा है

राजपूताने में अनेक वीर विद्वान और कुलाभिमानी राजा सरदार आदी हुए जिन्होंने अनेक युद्धों में अपने प्राणों की आहुति दे कर अपनी कीर्ति को अमर बना दिया राजपूत जाति की वीरता विश्व प्रसिद्ध रही है

चित्तौड़गढ़ ,कुंभलगढ़, मांडलगढ़ ,अचलगढ़ , रणथंबोर, गागरोन ,भटनेर (हनुमानगढ़), बयाना ,सिवाना ,मंडोर ,जोधपुर, जालौर आमेर आदी किलो और अनेक प्रसिद्ध रण क्षेत्र में कई बड़े-बड़े युद्ध हुए जहां अनेक वीर राजपूतों ने वहां की मिट्टी का एक एक कण अपने रक्त से तर किया कई स्थानों पर राजपूत क्षत्राणियों ने शत्रु का सामना किया सचमुच राजपूताना की धरती असाधारण रही है

इसीलिए कर्नल टोड को कहना पड़ा–राजस्थान में कोई छोटा सा राज्य भी ऐसा नहीं है जिस में थर्मोपल्ली जैसी रणभूमि ना हो और शायद ही ऐसा नगर मिले जान लियोनीडॉस जैसा वीर पुरुष उत्पन्न हुआ हो

12 वीं शताब्दी के अंत से ही राजपूताने का इतिहास में भारी हेर फेर शुरू हो गया था इसका कारण भारत में मुस्लिम शक्ति का प्रवेश था राजस्थान में मुस्लिम सत्ता की स्थापना पृथ्वीराज चौहान की पराजय के साथ शुरू हुई राजपूत शासकों और सामंतों ने बार बार इस बाह्य सत्ता को उखाड़ फेंकने का प्रयास किया यह सिलसिला आगामी लगभग 4 शताब्दियों तक चलता रहा सत्ता संघर्ष में राजपूत निर्णायक लड़ाई नहीं जीत सके इस कारण राजपूतों में असाधारण आपसी सहयोग का अभाव युद्ध लड़ने की कमजोर रणनीति और सामंतवाद था 

कुछ सदियों पश्चात राणा कुंभा और राणा सांगा के नेतृत्व में सर्वोच्चता की स्थापना राजपूताने में संभव हो सकी थी अपनी वीरता और तलवार के बल से राणा सांगा ने बहुत गौरव प्राप्त कर लिया था उसकी शक्ति इतनी बढ़ गई थी कि मालवा गुजरात और दिल्ली के सुल्तानों में से कोई भी अकेला उसे हरा नहीं सकता था और युद्ध क्षेत्र में उसी का सामना करते हुए पानीपत के वीर विजेता और दिल्ली के प्रथम सम्राट बाबर ने अपनी पराजय की प्रबल आशाओं से घबराकर भविष्य में मदिरापान न करने की शपथ ली तथा अजित कीर्ति और स्वयं को बचाने के लिए यह विदेशी “भारत विजेता” चिंतित हो उठा था

मुगलों का पतनोमुख काल राजपूताना के लिए हितकर नहीं रहा इतिहास में कई बार यह विडंबना देखने को मिलती है कि जब कोई शक्ति दूसरी से निजात पाने के लिए संघर्ष कर अपने मकसद में कामयाब हो जाती है तो भी वह बेहतर स्थिति के बजाए बदतर हालत में पहुंच जाती है इसका कारण शायद यह होता है कि बदले हुए हालत के लिए फुर्सत नहीं होती है कई बार ऐसा भी होता है कि मिलजुलकर कटी पतंग को लूट लिया जाता है परंतु पतंग प्राप्ति के बाद उस पर अधिकार आदि प्रश्नों को लेकर कुछ नहीं सोचा जाता है इसका परिणाम अंततः पतंग की लूटपाट में पतंग का फटना होता है इस प्रकार नियोजित ढंग से तैयार तंत्र के अभाव में बना हुआ खेल बिगड़ जाता है

यही बात मुगल सत्ता के प्रमुख काल में राजपूताने में हुई राजपूत शासकों को मराठों की लूट खसोट का कई बार सामना करना पड़ा ।अपने ही सामंतो का विरोध और पिंडारी के दमन चक्र ने स्थिति को और भी गंभीर बना दिया विवश होकर राजपूत शासकों ने ब्रिटिश संरक्षण स्वीकार कर लिया

ब्रिटिश शासन के अंतर्गत राजपूताने का इतिहास एक निश्चित आकार और पहचान पा सका एक ऐसी भौगोलिक अभिव्यक्ति को प्राप्त कर सका जिसे अंततः भारत के नक्शे में राजस्थान प्रांत की उपस्थिति दर्ज हो सके कई सामाजिक बुराइयों से मुक्ति पा सका और आधुनिकरण की राह पर चल सका परंतु यह सब दुर्भाग्यवश आर्थिक शोषण पराधीनता बर्बादी और कलंक की कीमत पर राजपूताना प्राप्त कर सका वस्तुत: को ब्रिटिश संरक्षण की भारी कीमत चुकानी पड़ी थी उन्हें अपनी और अपने आपसी विवादों को भी अंग्रेजों की मध्यस्ता के निर्णय हेतु प्रस्तुत करने का वचन देना पड़ा सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात यह थी कि अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए सर्वोच्च सत्ता के साथ अपने संबंधों के दावे को भी त्यागना पड़ा और ब्रिटिश सरकार के प्रति अधीनस्थ की नीति का पालन करने के लिए विवश होना पड़ा

राजस्थान की संस्कृति लोक संस्कृति है इसकी विशिष्ट पहचान है राजस्थान की लोक संस्कृति वीरों और वीरांगनाओं की वीरतापूर्ण कृत्यों और धार्मिक दार्शनिक मान्यता और आस्थाओं से परिपूर्ण है राजस्थानी लोक संस्कृति का स्वरूप वृहत है यह स्वरूप ग्रामीण अंचल से लेकर नगरों के सभ्य समाज तक विस्तारित है।

राजस्थान का इतिहास यहां की लोक संस्कृति की कीर्ति कथाओं का बखान करता है मनुष्य के जन्म से लेकर मनुष्य की मृत्यु तक के संस्कारों में लोक संस्कृति दृष्टिगत होती है यहां के तीज त्यौहार और विवाह के अवसर पर महिलाओं के नख-शिख श्रृंगार लोक संस्कृति को परिलक्षित करते हैं लोक संस्कृति में आदर्श और नैतिक मूल्य और परंपराओं का संपुट है जो नई पीढ़ी को शिक्षा देता है लोक संस्कृति का स्वरूप लोक गीत और लोक गाथाओं लोकनाट्य में सदियों की विरासत को समेटे हुए हैं

यहां के तीज त्यौहार तीर्थ रीति रिवाज सामाजिक पारिवारिक संबंध व मेलों में लोक संस्कृति के स्पष्टत दर्शन होते हैं व्रत त्योहार उत्सव मेले राजस्थानी लोक जीवन के अटूट अंग हैं देवी देवताओं में अटूट विश्वास यहां के लोक समाज की विशेषता है लोक जीवन की अनगिनत अनुभूतियों का उदात स्वरूप ही लोक संस्कृति है 

राजस्थानी अंचल की सांस्कृतिक परंपराएं लोक गीत लोक कथाएं लोक कहावतें लोक देवी देवताओं की धरोहर को जनजाति समाज ने आज भी संजोए रखा है साहित्य में लोक साहित्य अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है लोक साहित्य में लोकगीतों का एक विशेष स्थान है लोकगीतों के माध्यम से यहां त्यौहारों और पर्वों से जुड़ी कथाओं की अभिव्यक्ति होती है

वही गाने और सुनने वालों का मन आह्लाद से झूम उड़ता है इनके गाने का कोई स्थान और समय निश्चित नहीं होता लोकगीत समुदाय की धरोहर है यह पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपनाए जाते हैं राजस्थानी समाज की आत्मा लोक गीतों की धुन में गुनगुनाती रहती है यदि लोग जीवन में से लोकगीत और लोकनृत्य को निकाल दिया जाए तो ग्रामीण बाहुल्य समाज विशेष रूप से आदिवासी समाज का जीवन निरसता की ओर अग्रसर होने लगेगा और कृत्रिम और छिछले मनोरंजन साधनों की ओर अग्रसर होने लगेगा

लोकगीत विश्वास और आस्था युक्त घटनाओं पर आधारित होते हैं जिनके द्वारा यह इतिहास और मिथक का स्मरण करते हैं लोकगीत जनमानस की भाषा और संस्कृति है

राजस्थान में परवाड़ा लोकगाथा लोक साहित्य की मौखिक विधा है परवाडो़ की सजीवता आकर्षक का सरलता और संगीतात्मक का विशेष उल्लेखनीय हैं परवाडे़ सभी अवदान के रूप में है किसी न किसी वीर का चरित्र इन में रहता है यो भले ही इन की कथावस्तु पूर्णता ऐतिहासिक ना हो पर कथा वस्तु का बिंदु अवश्य ऐतिहासिक होता है लोक वीरों का कीर्तिमान ही परवाडा़ है इन में कतिपय है आवड़ माता के परवाडे़,करणी माता के परवाडे पाबूजी राठौर के परवाडे़, देवनारायण के परवाडे, जीण माता के परवाडे हड़बूजी सांखला और मेहाजी मांगलिया के परवाडे हीर रांझा के परवाडे तेजाजी के परिवाडे़ आदि

 


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